माधुर्य रस भाव
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माधुर्य-रस में स्वकीया परकीया भाव
भगवत सम्बन्धी रसो में प्रधान पाँच रस होते है-
"शांत", "दास्य", "सख्य", "वात्सल्य" और "माधुर्य". इसमें सबसे श्रेष्ठ माधुर्य भाव है .
भगवत सम्बन्धी रसो में प्रधान पाँच रस होते है-
"शांत", "दास्य", "सख्य", "वात्सल्य" और "माधुर्य". इसमें सबसे श्रेष्ठ माधुर्य भाव है .
माधुर्य भाव के दो प्रकार होते है - "स्वकीया-भाव" और "परकीया-भाव".
1.स्वकीया-भाव- अपनी स्त्री के साथ विवाहित पति का जो प्रेम होता है उसे स्वकीया भाव कहते है.
2. परकीया-भाव - किसी अन्य स्त्री के साथ जो परपुरुष का प्रेम सम्बन्ध होता है उसे परकीया भाव कहते है.
2. परकीया-भाव - किसी अन्य स्त्री के साथ जो परपुरुष का प्रेम सम्बन्ध होता है उसे परकीया भाव कहते है.
लौकिक (सांसारिक प्रेम ) में इन्द्रिय सुख की प्रधानता होने के कारण परकीया-भाव, पाप है, घृणित है. अतः सर्वथा त्याज्य है.क्योकि लौकिक परकीया भाव में अंग-संग की घृणित कामना है. परन्तु भागवत प्रेम के दिव्य कान्तभाव में, परकीयाभाव स्वकीया-भाव से कही श्रेष्ठ है. क्योकि इसमें अंग-संग या इन्दिय सुख की कोई आकांक्षा नहीं है.
स्वकीया में, पतिव्रता पत्नी अपना नाम, गोत्र, मन, प्राण, धन, धर्म, लोक, परलोक, सभी कुछ पति को अपर्ण करके जीवन का प्रत्येक क्षण पति की सेवा में ही बिताती है. परन्तु उसमें चार बातो की परकीया की अपेक्षा कमी होती है.
1. प्रियतम का निरंतर चिंतन.
2. मिलन की अत्यंत उत्कट उत्कंठा.
3. प्रियतम में किसी प्रकार का दोष न देखना.
4. कुछ भी न चाहना.
2. मिलन की अत्यंत उत्कट उत्कंठा.
3. प्रियतम में किसी प्रकार का दोष न देखना.
4. कुछ भी न चाहना.
परकीया में ये चार बाते निरंतर एक साथ निवास करती है,इसलिए परकीया भाव श्रेष्ठ है. भगवान से नित्य मिलन का अभाव न होने पर भी परकीया भाव की प्रधानता के कारण गोपियों को भगवान का क्षण भर का अदर्शन भी असह होता है.
वे प्रत्येक काम करते समय निरंतर कृष्ण का चिंतन करती थी.श्री कृष्ण की प्रत्येक क्रिया उन्हें ऐसी दिव्य गुणमयी दीखती थी कि एक क्षण भर के लिए भी उनसे उनका चित् हटाये नहीं हटाता था एक बात धयान रखनी चाहिये कि यह परकीया भाव केवल व्रज में है अर्थात लौकिक विषय वासना से सर्वथा विमुक्त दिव्य प्रेम राज्य में ही संभव है.
इसलिए चैतन्य मह्प्रभु ने कहा है -
"परकीया भावे अति रसेर उल्लास,
व्रज बिना इहार अन्यत्र नाही वास "
"परकीया भावे अति रसेर उल्लास,
व्रज बिना इहार अन्यत्र नाही वास "
अर्थात - सर्वाच्च मधुर रस के उच्चतम परकीया भाव का उल्लास व्रज को (अर्थात दिव्यप्रेम राज्य को छोड़कर)अन्यत्र कही भी नही होता.
श्री राधा स्वकीय थी या परकीया यह एक व्यर्थ का प्रश्न है क्योकि जब श्री कृष्ण और राधा स्वरुप नित्य अभिन्न एक ही तत्व है तब उनमे अपने पराये के कल्पना कैसी ?जैसे भगवान निराकार भी है और साकार भी है और उन दोनों से परे भी है उसी प्रकार राधा जी स्वकीय भी और परकीया भी है और दोनों से परे भी है.
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स्वकीय परकीया भाव
श्री राधा स्वकीय थी या परकीया यह एक व्यर्थ का प्रश्न है क्योकि जब श्री कृष्ण और राधा स्वरुप नित्य अभिन्न एक ही तत्व है तब उनमे अपने पराये के कल्पना कैसी ?जैसे भगवान निराकार भी है और साकार भी है और उन दोनों से परे भी है उसी प्रकार राधा जी स्वकीय भी और परकीया भी है और दोनों से परे भी है.
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स्वकीय परकीया भाव
'उज्ज्वल नीलमणि' के 'कृष्णवल्लभा' अध्याय के अनुसार कृष्णवल्लभाओं को दो भागो में बाँटा गया है.
१. - स्वकीया और
२. - परकीया
१. - स्वकीया और
२. - परकीया
स्वकीय गोपियाँ -
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्ण की विवाहिता पत्नियाँ स्वकीया हैं तथा उनकी प्रेयसी गोपियाँ परकीया हैं।
परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है।
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्ण की विवाहिता पत्नियाँ स्वकीया हैं तथा उनकी प्रेयसी गोपियाँ परकीया हैं।
परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है।
परकीया गोपियाँ-
"कन्या" और "परोढा" दो प्रकार की हैं।
कन्या - अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं।
परोढा - प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है।परोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं- "नित्यप्रिया", "साधन-परा" और "देवी".
"कन्या" और "परोढा" दो प्रकार की हैं।
कन्या - अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं।
परोढा - प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है।परोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं- "नित्यप्रिया", "साधन-परा" और "देवी".
अ) नित्य प्रिया - जो गोपियाँ नित्यकाल के लिए नित्य वृन्दावन में श्रीकृष्ण के लीला-परिकर की अंग हैं, वे नित्यप्रिया हैं। ये वस्तुत: वे भक्त जीव हैं, जिन्होंने प्रेम-भक्ति के द्वारा भगवत्-स्वरूप में प्रवेश पा लिया है और जो नित्यसिद्ध गोपी-देह से उनकी लीला के अभिन्न अंग बन गये हैं।
नित्यप्रिया गोपियों को "प्राचीना" भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है।
नित्यप्रिया गोपियों को "प्राचीना" भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है।
ब ) साधना-परा गोपियाँ- दो प्रकार की हैं।"यौथिकी" , "अयौथिकी"
१. यौथिकी - अपने गणके साथ प्रेम-साधना में संलग्न रहती हैं।
यौथिकी पुन: दो प्रकार की होती हैं- "मुनि" और "उपनिषद्"
यौथिकी पुन: दो प्रकार की होती हैं- "मुनि" और "उपनिषद्"
पौराणिक प्रमाणों के अनुसार अनेक*मुनिगण - जो कृष्ण के माधुर्यरूप का आस्वादन लेने के लिए गोपी-भावकी आकांक्षा करते हैं, गोपियों का जनम पाकर कृष्णकी ब्रजलीला में सम्मिलित होने का सौभाग्य लाभ करते हैं। ये ही मुनि-यूथकी गोपियाँ हैं।
*उपनिषद- यूथ की गोपियाँ पूर्वजन्म के उपनिषदगण हैं, जिन्होंने तपस्या करके ब्रज में गोपी रूप पाया है.
२ . अयौथिकी - गोपियों का रूप उन कृपाप्राप्त जीवों को मिलता है, जो गोपी-भाव से भगवान् कृष्ण के प्रेम में रत रहते हैं और अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद गोपीरूप पाते हैं ये अयौथिकी गोपियाँ "नवीना" भी कहलाती हैं और इन्हें भक्ति के फलस्वरूप प्राचीना नित्यप्रिया गोपियों के साथ सालोक्य प्राप्ति होती है।
स ) देवी - उन गोपियों का नाम है, जो नित्यप्रियाओं के अशं से श्रीकृष्ण के सन्तोष के लिए उस समय देवी के रूप में जन्म लेती हैं, जब स्वयं श्रीकृष्ण देवयोनि में अंशावतार धारण करते हैं। उपर्युक्त कन्या गोपियाँ ये ही देवियाँ हैं जो नित्यप्रियाओं की परम प्रिय सखियों का पद पाती हैं।
नित्यप्रिया गोपियों में आठ प्रधान गोपियाँ यूथेश्वरी होती है। प्रत्येक यूथ में यूथेश्वरी गोपी के भावकी असंख्य गोपियाँ होती हैं। राधा और चन्द्रावली सर्वप्रधान यूथेश्वरी गोपियाँ हैं। इनमें भी राधा सर्वश्रेष्ठ-महाभाव-स्वरूपा हैं।
रूपगोस्वामी के अनुसार ये सुष्ठुकान्तस्वरूपा, धृतषोडश-श्रृगांरा और द्वाद्वशा भरणाश्रिता हैं उनके अनन्त गुण हैं।
जय जय श्री राधे
राधे राधे गोविंद राधे नित्य चित दास हरि बोल
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